सरकारी प्राथमिक विद्यालय: संघर्ष से सृजन तक की जीवंत यात्रा

सरकारी प्राथमिक विद्यालय: संघर्ष से सृजन तक की जीवंत यात्रा
प्रस्तावना
सरकारी प्राथमिक विद्यालय भारत की आत्मा हैं। ये केवल ईंट और गारे से बने भवन नहीं, बल्कि करोड़ों बच्चों के सपनों की पहली सीढ़ी हैं। ग्रामीण भारत की वह जगह जहाँ बच्चे पहली बार "क, ख, ग" बोलना सीखते हैं, जहाँ शिक्षक न केवल शिक्षा देते हैं, बल्कि जीवन का पहला पाठ पढ़ाते हैं। लेकिन बदलते समय, सामाजिक धारणा और निजीकरण की आँधी में इन विद्यालयों का अस्तित्व संकट में है। यह जीवनी उस संघर्ष, सेवा और संवेदना की कहानी है जो आज भी सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को जीवित रखे हुए हैं।
1. आरंभ : नींव का निर्माण
स्वतंत्र भारत के स्वप्नदृष्टाओं ने शिक्षा को हर गाँव तक पहुँचाने का संकल्प लिया। संविधान के अनुच्छेद 45 ने 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की बात कही। तभी से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की शुरुआत हुई। ये विद्यालय गाँव-गाँव में खुले, जहाँ आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चे भी शिक्षा पा सके।

सरकारी स्कूलों ने दशकों तक भारत के भविष्य को आकार दिया। डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, नेता—कई महान हस्तियों ने अपनी यात्रा इन्हीं स्कूलों की धूलभरी दरी से शुरू की। इन स्कूलों ने शिक्षा को घर की चौखट से उठाकर गाँव की चौपाल तक पहुँचाया।
2. सुनहरा युग : सामूहिक विश्वास का प्रतीक
एक समय था जब सरकारी स्कूलों में बच्चों की कतारें लगती थीं। शिक्षक गाँव के सबसे सम्मानित व्यक्ति माने जाते थे। एक पुस्तक, एक स्लेट और एक बोरी में समाया था जीवन का सपना। उस समय शिक्षा केवल रोजगार का साधन नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता का रास्ता थी।

मिड-डे मील योजना ने स्कूलों को भूखे पेट की पढ़ाई से राहत दी। बच्चों को पोषण और पढ़ाई दोनों साथ मिले। शिक्षक बच्चों को केवल पाठ्यक्रम ही नहीं पढ़ाते थे, बल्कि चरित्र निर्माण, नैतिकता और देशभक्ति की शिक्षा भी देते थे।
3. बदलता समाज, बदलती धारणाएं
जैसे-जैसे समाज में निजीकरण ने जड़ें जमाईं, सरकारी विद्यालयों को 'गरीबों के स्कूल' के रूप में देखा जाने लगा। अभिभावकों की सोच बदली। निजी स्कूलों की अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा, यूनिफॉर्म, चमकदार बिल्डिंग और फीस के दम पर सरकारी स्कूलों की चमक फीकी पड़ने लगी।

शहरों में तो ठीक, गाँवों में भी लोगों ने सरकारी स्कूलों से दूरी बनानी शुरू कर दी। नामांकन घटा, कक्षाएं सूनी होने लगीं। सरकार की नीतियाँ भी कई बार केवल काग़ज़ी प्रयास बनकर रह गईं। जहाँ कभी शोर से गूंजते स्कूल हुआ करते थे, वहाँ अब ताले लटकने लगे।
4. संघर्ष : बंद होने की कगार पर जीवन का संघर्ष
आज देश के कई हिस्सों में सरकारी प्राथमिक विद्यालय बंद हो रहे हैं। नामांकन घटने पर दो स्कूलों को मिलाकर एक बनाया जा रहा है। स्कूल भवन अनुपयोगी हो रहे हैं, शिक्षक हतोत्साहित। लेकिन यह कहानी यहाँ खत्म नहीं होती। यही वह मोड़ है जहाँ से प्रेरणा की शुरुआत होती है।
5. पुनर्जागरण : उम्मीद की लौ
कई शिक्षकों ने इस अधेरे में भी आशा की मशाल जलाए रखी है। ऐसे समर्पित गुरुजन हैं जो गाँव-गाँव जाकर बच्चों को वापस स्कूल ला रहे हैं, स्कूल भवन को रंग-बिरंगे चित्रों से सजा रहे हैं, शिक्षण को खेल और कहानी से जोड़ रहे हैं। वे किताबों को जीवन से जोड़ते हैं और जीवन को सपनों से।

कहीं शिक्षक खुद अपने पैसों से लाइब्रेरी बनवा रहे हैं, कहीं स्कूल बगिया बनाकर बच्चों को प्रकृति से जोड़ रहे हैं। स्कूल अब सिर्फ शिक्षा केंद्र नहीं, संस्कार और समुदाय के केंद्र बन रहे हैं।
6. आधुनिक रूपांतरण : नई सोच, नई दिशा
नई शिक्षा नीति (NEP 2020), ICT आधारित शिक्षण, DIKSHA और SWAYAM जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने सरकारी स्कूलों को फिर से सशक्त करने की कोशिश की है। अनेक राज्य सरकारें विद्यालयों के इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रशिक्षण, और तकनीकी सहयोग पर काम कर रही हैं।

बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए शिक्षक नए प्रयोग कर रहे हैं। ‘बाल संसद’, ‘शिक्षा मेले’, ‘कहानी पाठ’, ‘संगीत और कला के माध्यम से शिक्षण’ जैसे प्रयासों ने बच्चों में फिर से रुचि जगाई है।
7. निष्कर्ष : प्रेरणा और भविष्य
सरकारी प्राथमिक विद्यालय कोई साधारण संस्था नहीं, बल्कि भारत की आत्मा के निर्माण स्थल हैं। इनकी कहानी कभी हार की नहीं रही, हमेशा पुनर्जन्म और परिवर्तन की रही है। यह आवश्यक है कि हम फिर से समाज में इनकी गरिमा को लौटाएं, इन स्कूलों को “गरीबों के नहीं, सबसे ज़रूरी स्कूल” बनाएं।

हर शिक्षक एक दीपक है, जो समय की आँधी में भी जलता रहा है। इन विद्यालयों की जीवनी हमें सिखाती है कि जब सेवा भावना, संकल्प और समाज साथ हो, तो कोई भी संस्था पुनर्जीवित हो सकती है।
“एक सरकारी स्कूल में पढ़े बच्चे की उड़ान, उस शिक्षक के पंखों से संभव होती है, जो केवल तनख्वाह नहीं, भविष्य गढ़ने आता है।”

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